tag:blogger.com,1999:blog-75154986107060511072024-03-13T13:20:01.498-07:00एक पंक्तिजो सच के सारथी हैं...साथ चले आएँएक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.comBlogger36125tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-61004092802419205962008-10-09T10:00:00.000-07:002008-10-09T10:00:00.405-07:00हम सितम को सितम नहीं कहते;आप तौहीने आरज़ू कीजैयूँ तो आकाशवाणी के रीजनल प्रसारण केंद्रों से सिवा समाचार के कुछ और अच्छे की उम्मीद करना बेमानी ही होता है लेकिन कभी कभी कोई ऐसी चीज़ यहाँ मिल जाती है कि फ़िर रेडियो के नज़दीक बने रहने को जी करने लगता है. अनायास आकाशवाणी भोपाल से प्रसारित होने वाली उर्दू मैगज़ीन में ये ग़ज़ल सुनने को मिली. <br />एकदम नया नाम लेकिन लाजवाब कलाम और सुरीली तरन्नुम. शायर का नाम था जनाब <strong>मसूद रज़ा भोपाली</strong>.नोट कर ली थी सो आप भी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ;<br /><strong><br />पहले दामन यहाँ रफू कीजै<br />फिर बहारों की जुस्तजू कीजै<br /><br />यही ऐलान कू ब कू कीजै<br />शीशा पत्थर के रूबरू कीजै<br /><br />कभी हमको दीजै इज़्में-सुकूँ<br />कभी हमसे भी गुफ़्तगू कीजै<br /><br />रोकिये अपनी मुस्कुराहट को <br />मेरा चाके जिगर रफू कीजै<br /><br />कौन है अपने अब तसव्वुर में<br />आईना किसके रूबरू कीजै<br /><br />हम सितम को सितम नहीं कहते<br />आप तौहीने आरज़ू कीजै.</strong>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-23674241702143464702008-09-10T00:48:00.000-07:002008-09-10T00:54:00.661-07:00पहले दामन यहाँ रफू कीजै; फिर बहारों की जुस्तजू कीजैयूँ तो आकाशवाणी के रीजनल प्रसारण केंद्रों से सिवा समाचार के कुछ और अच्छे की उम्मीद करना बेमानी ही होता है लेकिन कभी कभी कोई ऐसी चीज़ यहाँ मिल जाती है कि फ़िर रेडियो के नज़दीक बने रहने को जी करने लगता है. अनायास आकाशवाणी भोपाल से प्रसारित होने वाली उर्दू मैगज़ीन में ये ग़ज़ल सुनने को मिली.<br />एकदम नया नाम लेकिन लाजवाब कलाम और सुरीली तरन्नुम. शायर का नाम था जनाब <strong>मसूद रज़ा भोपाली</strong>.नोट कर ली थी सो आप भी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ;<br /><strong><br />पहले दामन यहाँ रफू कीजै<br />फिर बहारों की जुस्तजू कीजै<br /><br />यही ऐलान कू ब कू कीजै<br />शीशा पत्थर के रूबरू कीजै<br /><br />कभी हमको दीजै इज़्में-सुकूँ<br />कभी हमसे भी गुफ़्तगू कीजै<br /><br />रोकिये अपनी मुस्कुराहट को<br />मेरा चाके जिगर रफू कीजै<br /><br />कौन है अपने अब तसव्वुर में<br />आईना किसके रूबरू कीजै<br /><br />हम सितम को सितम नहीं कहते<br />आप तौहीने आरज़ू कीजै.</strong>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-13456269305059770572008-07-29T11:32:00.000-07:002008-07-29T11:41:38.978-07:00किसी की याद में दुनिया को हैं भुलाए हुएरफ़ी के बारे में अल्फ़ाज़ पीछे छूट जाते हैं.<br />अपने गाने में वे एक ऐसी तस्वीर बना देते हैं<br />कि लगता गायकी रफ़ी से शुरू होती है और उन्हीं <br />के साथ ख़त्म हो जाती है.<br /><br />उनकी २८ वीं बरसी पर संगीतप्रेमियों की <br />भावपूर्ण श्रध्दांजली.वे ३१ जुलाई १९८० को<br />इस दुनिया ए फ़ानी से कूच कर गए थे.<br /><br /><object width="425" height="344"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/0ecleTLypto&hl=en&fs=1"></param><param name="allowFullScreen" value="true"></param><embed src="http://www.youtube.com/v/0ecleTLypto&hl=en&fs=1" type="application/x-shockwave-flash" allowfullscreen="true" width="425" height="344"></embed></object>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-74841401508224686362008-07-09T05:59:00.000-07:002008-07-09T06:04:49.691-07:00देवकीनंदन पाण्डे के नाम से स्थापित होना चाहिये एक राष्ट्रीय सम्मान.आज <strong><a href="http://www.radionamaa.blogspot.com/">रेडियोनामा</a></strong> ने देश की एक ऐसी आवाज़ का ज़िक्र छेड़ किया जो<br />पूरे देश को अपने जादू से जाने-अनजाने कितने ही घटनाक्रम से की <br />वाहक रही. देवकीनंदन पाण्डेय की आवाज़ एक अंचल के सुख-दु:ख <br />को दूसरे अंचल तक पहुँचाने का काम करती रही. जिस समर्पण से<br />पाण्डेजी अपना काम करते रहे अत: उनके नाम को अक्षुण्ण बनाए<br />रखने के लिये प्रसार भारती को आकाशवाणी और दूरदर्शन के सैकड़ों<br />समाचार वाचकों में से किसी एक को प्रतिवर्ष देवकीनंदन पाण्डेय<br />सम्मान से नवाज़ा जाना चाहिये. इस शुरूआत से पाण्डेयजी जैसा<br />आदरणीय नाम करोड़ों भारतीयों के दिलोदिमाग़ में अविस्मरणीय तो<br />बना रहेगा ही साथ ही नई पीढ़ी भी इस स्वर-पितामह के हुनर की<br />स्मृति अपने मानस में बनाए रखेगी.पाण्डेजी की आवाज़ इरफ़ान<br />भाई ने <strong><a href="http://tooteehueebikhreehuee.blogspot.com/2007/08/blog-post_6137.html">यहाँ </a></strong>सहेज रखी है . आशा है आप सभी का समर्थन इस <br />विचार को मिलेगा.एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-78871355353710993152008-06-24T08:26:00.000-07:002008-06-24T09:47:16.537-07:00क्या आपके शहर में घुमड़ रहे हैं बादल ? तो सुनिये ये कालजयी रचना.फ़िल्म दो आँखें बारा हाथ।मन्ना डे और लता मंगेशकर की गायकी का लाजवाब अंदाज़.ये गीत तब भी सुनिये जब आपके शहर में बादल आपको तरसारहे हों और बरस नहीं रहे हों....हो सकता है कि इस गीत के बजने के बाद बरस जाएँ....<br /><br /><object width="400" height="20"><param name="movie" value="http://lifelogger.com/common/flash/flvplayer/flvplayer_basic.swf?file=http://surkidisha.lifelogger.com/media/audio0/769145_trvbliqlqo_conv.flv&autoStart=false"></param><embed src="http://lifelogger.com/common/flash/flvplayer/flvplayer_basic.swf?file=http://surkidisha.lifelogger.com/media/audio0/769145_trvbliqlqo_conv.flv&autoStart=false" type="application/x-shockwave-flash" width="400" height="20"></embed></object>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-61535610734286160152008-06-10T07:02:00.000-07:002008-06-10T07:51:41.254-07:00हुज़ूर ! अशआर कहिये न....शेरों नहींब्लॉग्स पर शेर’ ओ’शायरी हमेशा शबाब पर रहती है.सदाबहार आयटम.<br />कई ब्लॉगर भाई/बहन अपनी डायरियों में लिखे गए विभिन्न शायरों<br />की शायरी ब्लॉग पर जारी करते हैं ।अच्छा है , शायरी संक्रामक हो रही है.<br />गुज़ारिश इतनी भर है कि किसी शायर के एक से अधिक शे’र हों तो<br />उसे अशआर कहते है यानी शे’र का बहुवचन. कुछ लोग अशआर को<br />एकवचन समझते हैं तो अधिक शे’र देख कर अशआरों भी लिख देते हैं.<br />भगवान के लिये ऐसा मत कीजिये ..किसी ज़ुबान से मुहब्बत कीजिये<br />तो , पूरी वरना किसने कहा है ऐसा करने को. यदि किसी ने लिख दिया है<br />कि उनके शेरों से आनंद आ गया तो यहाँ वही शेर होंगे जो गिर या<br />कान्हा किसली के जंगल में पाए जाते हैं ...यानी सिंह.<br /><br />उर्दू ऐसी एकमात्र समृध्द भाषा है जिसके पास बहुवचन के लिये<br />जुदा शब्द हैं.जैसे एक आसमान की बात हो तो हिन्दी में आसमान<br />और ज़्यादा तो आसमानों कर देने से काम चल जाएगा लेकिन उर्दू में<br />एक आसमान यानी फ़लक़ और सातों आसमान कहना हो तब सातों अफ़लाक़.<br /><br />तो अब जब भी एक से अधिक शे’र जारी करें या लिखें तो<br />अशआर लिखें ...शेरों न लिखें.<br /><br />उर्दू एक बड़ी संजीदा ज़ुबान है और इसकी पूरी ख़ूबसूरती<br />उच्चारणों पर आधारित है. उर्दू लिपि जानने वाले तो<br />इस बात का पूरा एहतियात रखते हैं कि वह शुध्द लिखी जाए<br />लेकिन देवनागिरी में आते ही मामला गड़बड़ हो जाता है.बिला शक<br />उर्दू में ऐसा आकर्षण है वह हर आम-औ-ख़ास को अपने क़रीब लाती है.<br />लेकिन ये ज़रूरी है कि हिंदी में लिखते / बोलते वक़्त हम ज़ुबान (उच्चारण)<br />की सफ़ाई का ख़ास ख़याल रखें.हिन्दी का मज़ा ये है कि वह जैसे लिखी जाती<br />है वैसे ही बोली जाती है.जहाँ ज बोलना या लिखना है वहाँ ज ही बोलिये;<br />जहाँ ज़ है (यानी ज के नीचे बिंदु लगी है जिसे नुक़्ता कहते है) वहाँ ज़ ही रखिये.<br />अपनी ओर से इसमें कुछ भी रद्दोबदल न करें;ऐसा करना किसी भाषा के व्याकरण<br />के साथ छेड़ख़ानी करना ही माना जाएगा.अब बताइये तो संतोष को हिन्दी में कोई<br /><strong>संतोस</strong> लिखे तो कितना ग़लत होगा....और सरस्वती को <strong>शरश्वती</strong> लिखे तो ?<br /><br />तो समझ-बूझ के साथ ही दूसरी भाषा के साथ खेलिये ..बाक़ायदा होमवर्क कीजिये<br />इसके लिये.चलते चलते बता दें कि क ख ग ज और फ़ ऐसे पाँच शब्द हैं जिनके<br />नीचे उर्दू ज़ुबान में नुक़्ते इस्तेमाल किये जाते है और वह भी बड़ी सतर्कता से.<br />यदि इसका उपयोग बिना जानकारी के किया जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है.<br />देखिये ये उदाहरण:<br /><br />जीना : ज़िन्दगी जीना या जीवन जीना<br /><strong>ज़ीना</strong> : चढ़ाव ...<br /><br />खुदाई : यानी मिट्टी की खुदाई<br /><strong>ख़ुदाई</strong> : ख़ुदा की ख़ुदाई (भगवान की कृपा)<br /><br />अब कोशिश होगी कि यदि कहीं ब्लॉग्स पर ग़लत लिखा दिखा तो ख़बरदार कर दिया जाएगा। उम्मीद है ज़ुबान की सफ़ाई के इस नेक इरादे का आप बुरा नहीं मानेंगे।एक और मशवरा; जिन्हें उर्दू से वाक़ई मुहब्बत है और वे इसे विस्तार देना चाहते हैं तो उत्तर प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित उर्दू-हिन्दी<br />शब्द कोश अवश्य ख़रीदें।मात्र सौ रूपये क़ीमत का ये शब्दकोश उर्दू को बोलने,लिखने और समझने के लिये अलादीन का चिराग़ है.एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-54895283913307176812008-04-30T21:01:00.000-07:002008-04-30T21:07:27.798-07:00मज़ा तो तब है जब नेताजी के मित्र-मंडल की आय भी नेताजी की मानी जाएख़बर तो दमदार है कि मतदाता अब राजनेताओं से उनका आयकर रिटर्न<br />मांग सकेगा. प्रश्न इतना भर है कि क्या आयकर रिटर्न में<br />जताई गई और बताई गई आय पारदर्शी और सही होगी ?<br /> हम सब नहीं जानते की इन नेताओं की आय का लेखा<br />जोखा इस तरह से रखा जाता है कि जिससे नेताजी मामूली समाजसेवी<br />नज़र आएँ. जबकि सारा ज़माना जानता है राजनेता महंगे मोबाइल हैण्डसैट,विदेशी<br />कारों,भव्य बंगलों,परिजनों द्वारा ख़र्चीली शॉपिंग्स ,एकड़ों में फ़ैले फ़ॉर्म हाउसेज़,विदेश<br />यात्राओं,बच्चों की महंगे कालेजों में पढ़ाई,और सबसे महत्वपूर्ण अपने चुनाव अभियानों<br />या अपने नेताओं के स्वागत में जारी इश्तेहारों के करोंड़ों के बजट से सीधे संलग्न होते<br />हैं लेकिन ये सब किसी एजस्टमेंट के तहत नेताजी के स्वयं की आय से ख़र्च ही नहीं<br />होते.....तो आख़िर ये सब होता कैसे है ?<br /><br />उत्तर आसान है कि कुछ आय स्रोत अपने नाम पर,कुछ ख़ानदान यानी परिवार के नाम पर कुछ कृषि आय से,कुछ पत्नी के नाम से,कुछ बेटे के नाम से और कुछ आय स्वयं की<br />सेवा के लिये खड़े किये गए स्वयं-सेवी संगठनों मे समायोजित की जाती है . अब आपको<br />नेताजी निरीह,ग़रीब और समाज-सेवी नज़र नहीं आएंगे तो क्या.<br /><br />ऊपर जो इश्तेहारों के ख़र्च की चर्चा है उसमें मज़ा ये है कि नेताजी तो<br />इश्तेहार देते ही नहीं.....सारा ख़र्च ...फ़लाने नेताजी मित्र मंडल के नाम से होता है जिसमें<br />जुड़े होते हज़ारों ज़मीनी कार्यकर्ता...सबके नाम से चंदे की रसीद कट जाती है और बस<br />अख़बारों और होर्डिंग बनाने वाली एजेंसियों को भुगतान हो जाते हैं.<br />मज़ा तब है जब आयकर विभाग इस बात पर नज़र रखे कि<br />मित्र मंडल भी बाक़ायदा पैन नम्बर धारक हों यानी उनका पंजीयन भी बाक़ायदा विभागीय स्तर पर हो . इसके बाद भी यदि ये मित्र मंडल नौटंकी जारी रहती है तो इन इश्तेहारों के बारे में संबधित नेताजी को नोटिस जारी किये जाएँ कि आपने इस इश्तेहार का भुगतान कहाँ से और कैसे किया है.<br />किसको पड़ी है कि नेताजी रिटर्न की कॉपी मांगने जाएगा....<br />ख़ुद के काम तो निपटते नहीं और ज़िन्दगी फ़ुरसत देती नहीं कि इस तरह के काम करे.और शर्तिया ये बात भी कही जा सकती है कि यदि सूचना आयोग ने ये ख़बर जारी की हो नेताजी तो आज से ही सतर्क होकर इस साल का रिटर्न साफ़-सुथरा भरने वाले हैं......इन चोचलों से वाक़ई कुछ नहीं होने वाला<br />देश को चाहिये कुछ समझदार नागरिक और बहुत से टी.एन.शेषन.एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-12174575831703485892008-04-29T06:36:00.000-07:002008-04-29T06:48:34.228-07:00मेरी ज़िन्दगी इस तरह सब की हो गई !<strong><span style="color:#ff0000;"><em>कभी कभी यूं होता है कि कविता ख़ुद आपके पास<br />चलकर आती है। ये नहीं बताती कि किसने उसे लिखा<br />है; बस कुछ यूं ही ये कविता भी मुझ तक चली आई<br />है। मित्र ने बताया कि किन्हीं मुनि महाराज की है।<br />आपसे बांटते हुए झिझक इसलिये नहीं<br />इसका यश उन्हीं मुनि के खाते में जमा होना<br />तय रहा।</em></span></strong><br /><strong><span class=""></span></strong><br /><strong><span class=""></span> एक उड़ते<br />पखेरू ने<br />मुझसे निरंतर उड़ते रहने को कहा।<br />एक पेड़ ने तूफ़ानों के बीच<br />अडिग खड़े रहने को कहा।<br />और एक नदी मुझसे निरंतर<br />बहते रहने को कह गयी।<br />सूरज ने सुबह आ कर<br />मुझसे दिनभर<br />रोशनी देते रहने को कहा।<br />चांद सितारों ने<br />रातभर अंधेरों से<br />जूझने को कहा।<br />और एक नीली झील<br />मुझे बाहर-भीतर<br />एक सार<br />निर्मल होने को कह गयी<br />सागर ने<br />धीरे से<br />लहरा कर कहा-<br />सीमाओं में रहो।<br />आकाश ने अपने में<br />सबको समा कर कहा-<br />असीम होओ।<br />और एक नन्हीं बदली<br />प्रेम से भर कर<br />मुझसे निरंतर बरसने को कह गयी,<br />मेरी ज़िंदगी<br />इस तरह<br />सबकी हो गयी।</strong>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-21157715176011092152008-04-28T16:26:00.000-07:002008-04-28T16:48:57.768-07:00कहाँ से आए बदरा जैसा सुरीला गीत रचने वाली...इंदु जैन नहीं रहींफ़िल्म थी चश्मेबद्दूर और गाना आपका जाना-पहचाना...कहाँ से आए बदरा। येशुदास और हेमंती शुक्ला का गाया हुआ।गीतकार थीं <strong>इंदु जैन</strong> हालाकि कविता क्ष्रेत्र में उनकी शिनाख़्त इस गीत से कहीं ज़्यादा बडी थी फ़िर भी इस गीत का <span class="">जिक्र इसलिये </span>कर दिया कि कई फ़िल्म संगीत प्रेमियों तक भी ये ख़बर पहुँच जाए।इसी सुरीले गीत को रचने वाली कवयित्रि श्रीमती इंदु जैन नहीं रहीं।दिल्ली में उनका निधन हुआ. हिंदी साहित्य परिदृष्य पर बरसों सक्रिय रहीं इंदुजी एक ज़माने में दूरदर्शन की साहित्यिक गोष्ठियों में बहुत नजर आतीं थीं और हाँ शाम को जैसे ही दूरदर्शन का प्रसारण शुरू होता तो बच्चों के लिये एक प्यारा सा कार्यक्रम आता था ......उसमें लम्बे और खुले बालों और माथे पर बडी सी बिंदी लगाए बच्चों बतियाती महिला इंदु जैन ही हुआ करतीं थी.दूरदर्शन के लिये उन्होनें कई हस्तियों से इंटरव्यू भी लिये.इंदु जैन उन महिलाओं में शामिल रहीं जिन्होने शिद्दत से औरत के अस्तित्व को मान्यता दिलवाई.एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-29297872082712604012008-03-08T08:29:00.000-08:002008-03-08T08:40:28.890-08:00अच्छाई और नेकी की खुशबूअच्छाई और नेकी आपकी दिल की अलमारी<br />में अलग अलग खुशबू वाले परफ़्यूम की<br />शीशियाँ हैं........<br />इन्हें लगाते रहने से<br />आप भी महकते हैं<br />ज़माना भी.....<br />कभी आज़मा कर देखियेगा<br />निराश नहीं होंगेएक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-13959142535652925942008-03-07T07:17:00.000-08:002008-03-07T07:28:32.638-08:00मानव को कुछ ज़्यादा महत्व नहीं देती प्रकृति माँ !प्रकृति में ऐसा कुछ भी नहीं जो यह सिध्द करता हो कि वह किसी अन्य प्रजाति के मुक़ाबले मानव को ज़्यादा महत्व देती हो. एक दिन हम भी ऐसे ही विलुप्त हो सकते हैं और उतनी ही आसानी से और जड़ से, जैसे हमारे सामने कई हज़ारों प्रजातियाँ.......! ध्यान रहे..... <strong>प्रकृति माँ का कोई लाड़ला नहीं है</strong> !<br /><br />प्राकृतिक संतुलन जब भी ख़तरे में होता है तो प्रकृति उस संतुलन को बरक़रार रखने के लिये कोई न कोई रास्ता ढूँढ ही लेती है....चाहे इस की क़ीमत कुछ भी हो.<br /><br />यदि हमारे कारण प्रकृति संकट में आती है तो वह स्वयं को पुन: सज-सँवार लेगी और वह माइकल एंजिलो, शेक्सपीयर, मोज़ार्ट और नरगिस के एक छोटे से पुण्य में कोई भेद नहीं करेगी.<br /><br />हम यहाँ पर एक ऐसी अदृश्य और प्रबल शक्ति की बात कर रहे हैं जो स्वयं जीवन है और हम उसके<br />बारे में आदि से लेकर अंत कुछ भी नहीं जानते हैं.हम सिर्फ़ इतना जानते हैं कि विभिन्न प्रजातियों में<br /><strong>प्रकृति का कोई भी अति - प्रिय नहीं है.</strong>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-39526695136587576512008-03-06T06:03:00.000-08:002008-03-06T06:13:15.654-08:00पूरा नॉवेल जो न कह पाए ...एक शे'र कह जाए !<strong><em><span style="color:#990000;">यक़ीनन मशहूर शायर डॉ.बशीर बद्र साहब ठीक फ़रमाते हैं।ऊपर लिखी इबारत उन्हीं का वक्तव्य है.अभी कुछ दिन पहले शायरी से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले एक दोस्त ने ये तीन शे'र सुनाएऔर फ़िर याद आ गए...डॉ.बद्र और उनकी बात..........</span></em></strong><br /><strong><em><span style="color:#990000;"></span></em></strong><br /><strong><em><span style="color:#990000;">दोस्त को पहले शे'र के शायर का नाम मालूम था ...बाक़ी दो का नहीं....कितने मुख़्तसर में बात को कहा है और मानी कितने गहरे हैं.......</span></em></strong><br /><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#006600;">बेच डाला कल हमने अपना ज़मीर</span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;"><span style="color:#006600;">ज़िन्दगी का आख़िरी ज़ेवर भी गया</span></span></strong><br /><span class=""></span><br /><strong>(राजेश रेड्डी)</strong><br /><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#006600;">आदतन तुमने कर दिये वादे</span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#006600;">आदतन हमने एतबार किया</span></strong><br /><br /><strong>(नामालूम)</strong><br /><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#006600;">तलवे ज़ख़्मी होने दे</span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#006600;">फूलों मत पाँव </span></strong><strong><span style="font-size:130%;color:#006600;">रख</span></strong><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#006600;"><span class=""></span></span></strong><br /><span style="color:#000000;"><strong>(नामालूम)</strong></span><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#006600;"><span class=""></span></span></strong>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-16641867189222865492008-03-02T04:54:00.000-08:002008-03-02T05:05:42.612-08:00लक्ष्य पर दृष्टि डालकर चलिए !<strong>लक्ष्य पर दृष्टि डालकर चलिये</strong><br /><strong>शक को मन से निकालकर चलिये</strong><br /><strong></strong><br /><strong>तन है संदूक, साँसें सिक्के हैं</strong><br /><strong>शुभ-अशुभ देखभाल कर चलिये</strong><br /><strong></strong><br /><strong>भूख और आंसुओं की बस्ती में</strong><br /><strong>वक़्त थोड़ा निकालकर चलिये</strong><br /><strong></strong><br /><strong>धन सहित पद-प्रतिष्ठा भी हो जब</strong><br /><strong>अपना आपा संभालकर चलिये</strong><br /><strong></strong><br /><strong>सत्य के जल में अपने जीवन को</strong><br /><strong>है ज़रूरी खंगालकर चलिये</strong><br /><strong></strong><br /><strong>इसमें जोखिम तो है मगर युग को</strong><br /><strong>अपने साँचे में ढालकर चलिये</strong><br /><br />रचयिता:<strong>प्रो.अज़हर हाशमी,</strong>रतलाम.एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-47397441861784707712008-03-01T05:59:00.000-08:002008-03-01T06:04:13.790-08:00और वह फूलों से लद गया<strong><span style="color:#990000;">मैंने ईश्वर से कहा ........</span></strong><br /><strong><span style="color:#990000;">मुझे अपने बारे में बता ?</span></strong><br /><strong><span style="color:#990000;">और वह ......</span></strong><br /><strong><span style="color:#990000;">फूलों से लद गया</span></strong>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-52852716077802974552007-10-26T07:19:00.000-07:002007-10-26T07:35:33.160-07:00जाओ चाँद अपने घर जाओ..हमें फ़ुरसत नहीं तुम्हें निहारने की !<strong>मियाँ अब निकल भी लो</strong><br /><strong>तुम तो फ़ैल गये हो आकाश में</strong><br /><strong>पर हमारे दिल तो संकुचित हैं वैसे के वैसे ही</strong><br /><strong>तुम्हारी शीतल छाया का कोई प्रभाव हम पर नहीं पड़ता</strong><br /><strong></strong><br /><strong>हमें काम है </strong><br /><strong>हमारे सैंसेक्स से</strong><br /><strong>धंधे से</strong><br /><strong>गोरखधंधे से कहूँ तो शायद मेरे दोस्तो को एतराज़ न होगा</strong><br /><strong>हम लिप्त हैं </strong><br /><strong>सास भी कभी बहु थी की घटिया चकल्ल्स में</strong><br /><strong>तुम तो दीप्त हो</strong><br /><strong>अपने उजास से</strong><br /><strong></strong><br /><strong>यार ! कहाँ से जुगाड़ते हो ऐसी प्रेमल ठंडक</strong><br /><strong>हम सब तो धधकते रहते हैं</strong><br /><strong>तमस में सुलगते रहते हैं</strong><br /><strong>जैसे बाप हमारे विरासत कर गए हों</strong><br /><strong>गु़स्सा....झुंझलाहट......चिड़चिड़ाहट</strong><br /><strong></strong><br /><strong>हम कितने वाचाल हैं तुम्हारे सामने</strong><br /><strong>तुम्हारी ख़ामोशी भी एक संगीत है</strong><br /><strong>भोले-भाले चाँद</strong><br /><strong></strong><br /><strong>हमने अपने इर्द-गिर्द ऐसे तामझाम जुटाए हैं</strong><br /><strong>जो हमें ही लीलते जा रहे हैं</strong><br /><strong>रिश्ते हों या जीवन व्यवहार </strong><br /><strong>हम समय से पहले ही बीतते जा रहे हैं</strong><br /><strong></strong><br /><strong></strong><br /><strong>तुम हो नि:श्छल,नि:शब्द</strong><br /><strong>निर्विकार,मासूम,और नेक</strong><br /><strong>हमने तो समेट लिये हैं </strong><br /><strong>अपने आसपास संदेह,</strong><br /><strong>कलेस अनेक</strong><br /><strong></strong><br /><strong>ओ ! चाँद तुम चले जाओ अपने घर</strong><br /><strong>हमें फ़ुरसत नहीं तुम्हे निहारने की</strong><br /><strong>तुमसे बतियाने की</strong><br /><strong>तुम्हारी शीतलता अपनाने की</strong><br /><strong></strong><br /><strong>पूर्णाकार चाँद </strong><br /><strong>तुम पूरे हो आज</strong><br /><strong>फ़िर घटोगे</strong><br /><strong>फ़िर बढो़गे</strong><br /><strong></strong><br /><strong>हम तो घटिया हैं</strong><br /><strong>कभी बढे ही नहीं</strong><br /><strong>पूर्ण क्या ख़ाक होंगे.</strong><br /><strong></strong><br /><strong></strong><br /><strong>जाओ चाँद अपने घर जाओ</strong><br /><strong>मै नहीं निहारूंगा तुम्हे</strong><br /><strong>तुम्हे देखने से मुझमें ये हीन भाव</strong><br /><strong>आकार लेता है कि</strong><br /><strong>हम तो वाचालता,ईर्ष्या,तमस,</strong><br /><strong>कुचक्र और कुचालों के कितने</strong><br /><strong>दाग़ लेकर</strong><br /><strong>अपनी ज़िंदगी ढो रहे हैं</strong><br /><strong>तुममें बस थोड़ा सा दाग़ है</strong><br /><strong>इस पर भी शायर तुम्हे कोसते हैं</strong><br /><strong>हम अपने को कितना कोसें</strong><br /><strong></strong><br /><strong>जाओ ! चाँद तुम अपने घर जाओ !</strong>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-52359228605418278612007-10-19T07:51:00.000-07:002007-10-19T07:58:32.426-07:00हम नहीं लिखेंगे ...टिप्पणी.<strong>क्योंकि....</strong><br /><strong></strong><br />हमेशा सच नहीं लिख सकते<br /><br />लिखने का मतलब ...हमने लिखी ... आप भी लिखो<br /><br />सामने वाले की तारीफ़ करने में तकलीफ़ होती है<br /><br /><br />लिख देने के बाद भी हमारे लिये तो कोई कुछ लिखता ही नहीं<br /><br />लिखने के लिये पूरा का पूरा पढना पडता है<br /><br />लिखने की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती है क्या साहब<br /><br />हमने लिख दी और किसी ने फ़िर हमारे लिखे पर नहीं लिखी तो<br /><br />कौनू फ़रक परत है साहेब<br /><br />नाही लिखबै...तो क्या आप नाही लिखा करीएक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-54956457122771522602007-10-07T10:31:00.000-07:002007-10-07T10:40:50.160-07:00एकांत को साझा करती है प्रेम कविताएँकुचक्र से सिली दुनिया मे<br />फ़िजूल के कयास मत लगाओ<br />ये मत सोचो की कोई प्रेम-कविता<br />लिख रहा है / या लिख रही है<br />तो वह किसी तरह का आकर्षण<br />पैदा करना चाहता ह / चाहती है<br /><br />मत सोचना कि किसी मन की<br />ऐंद्रिक अनुभूति को भुनाना चाह रहा है<br /><br />मत सोचना कि किसी तरह की आत्म रति है ये<br /><br />प्रेम की कविता<br />ओस की बूँद सी पवित्र भी हो सकती है<br />बच्चे की हँसी सी धर्म-निरपेक्ष भी हो सकती है<br />माँ के वात्सल्य सी निर्दोष भी हो सकती है<br />पत्नी के नि:श्छल प्रेम सी हो सकती है<br /><br />प्रेम की कविता हैलोजन की रोशनी नहीं<br />एक मोमबत्ती है अपने को गला कर उजाला करने में निरत<br />हवन का धुँआ सी होती है प्रेम कविता<br />परिवेश को आनंदमय बनाती सी<br />लोभान और अगरबत्ती सी होती है<br />प्रेम कविता<br />मध्दिम मध्दिम सुरभित करती माहौल को<br /><br /><br />ऐसा नहीं की रचने वाला ही है प्रेम कविता का पात्र<br />आप भी हो सकते हैं...वह भी हो सकती है.....<br />इत्र किसी और को लगाओ तो अपनी उंगलियाँ भी महक उठतीं हैं<br /><br />प्रेम कविता अपने मन के एकांत को साझा करने की जुम्बिश भर है<br />आपको अपनी सी लगने लगे ...या आपकी लिये लिखी गई लगने लगे तो<br />इसमें शब्द और क़लम का पराक्रम ही तो है न ?एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-41714724681348705342007-10-04T07:18:00.000-07:002007-10-04T07:37:20.016-07:00जब तक मेरा प्रेम पहचानोगे ...बहुत देर हो जाएगीसच कह रहा हूँ मैं<br />अभी भी जान लो<br />अपने दोस्त की सात्विकता और सत्य को पहचान लो<br />मैं गुज़रा वक़्त हूँ जो कभी लौट कर नहीं आता<br /><br />मैं मुँह का ज़ायका बदलने वाला ज़ाफ़रान नहीं<br />मैं महफ़िल को लुभा लेने वाला लटका-झटका भी नहीं<br />मैं नहीं वह झूठ जो रिश्तों को बाज़ारू बनाते सिलसिलों में पोशीदा है<br />मैं रैम्प का वह मॉडल नहीं जो दिखा रहा है अपनी बॉडी-बिल्डिंग<br />मैं वह काफ़ूर हो जाने वाला परफ़्यूम भी नहीं<br />मैं वह आश्वासन नहीं जो अंतत: पूरा नहीं होता<br />मैं नेता का वह वादा नहीं जो पूरा न करने के लिये दिया जाता है<br />मैं वह झूठ नहीं जो आपको बहला कर खु़श कर दे<br />मैं व्यापारी का वह ज़ुल्म नहीं जो कहर ढा देता है<br /><br /><br />मैं हूँ सूरज और चाँद सा सच<br />पानी सा खरा<br />पहचानो तो ज़रा<br />कौन हूँ मैं<br />मैं हूँ वह दोस्त जो खरी खरी सुनाता है<br />चोट करता है हर उस छदम व्यवहार पर<br />जिसमें स्वार्थ और कुटिलता का अभिनय है<br />मैं हूँ जिस्म का वह पसीना जो मित्रता के लिये मशक्कत करता है<br />ख़ुशबू बन कर हमेशा महकता है मेरे आचरण में<br /><br />मैं हूँ वह सखा जो कुछ नहीं चाहता अपने लिये<br />चाहता है कि मैं करूँ कुछ अपनों के लिये<br />याद में बसा रहूँ कुछ ऐसे कि याद ही न करना पड़े मुझे<br />सदभावना की पाती कुछ इस तरह रचना चाहता हूँ तुम्हारे जन्म दिन पर<br />पढ़ो .....और कुछ गुनो मेरे प्रिय....<br /><br />मै आया हूँ जन्म दिवस पर<br />मरण दिवस पर तुम आ जाना<br />मैं शब्दों में प्रीत लगाता<br />तुम शब्दों की प्रीत निभाना.<br /><br />इतना सब लिखने के बाद भी जानता हूँ<br />कि जब तक मेरा प्रेम पहचानोगे....<br />बहुत देर हो जाएगी तब तक.एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-5429769837179024652007-09-30T00:37:00.000-07:002007-09-30T00:49:28.016-07:00उधारी है शबाब पर<strong>क्रेडिट कार्डों के कल्चर में</strong><br /><strong></strong><br /><strong>उधारी है शबाब पर</strong><br /><br />वादे निभाने में उधारी<br /><br />इक़रारनामें में उधारी<br /><br />बिटिया की गुडिया उधार<br /><br />माँ की दवाई उधार<br /><br />भाई की किताब उधार<br /><br />यहाँ उधार के मानी ये नहीं<br /><br />कि सारा साज़ो-सामान उधार ख़रीद<br /><br />कर ला दिया है माँ,बेटी और भाई के लिये<br /><br />यहाँ उधार के मानी हैं किसी काम को टालने<br /><br />की एक बेशरम जद्दोजहद<br /><br />उधार शब्द ज़िंदगी के बेतरतीब,लापरवाह<br />और गै़रज़िम्मेदार होने की पुष्टि है<br /><br /><strong>नक़द के रूप में उपलब्ध है</strong><br /><br />वाचालता<br />दुर्व्यवहार<br />बे ईमानी<br />झूठ<br />लम्पटता<br />असभ्यता<br />झाँसे<br />ताने<br />ईर्ष्या<br />असहजता<br />असहिष्णुता<br />नाइंसाफ़ियाँ<br /><br />बाज़ार के इस उधार -नक़द कुचक्र में<br />रिश्ते हैं छलनी<br />बिला वजह का बड़बोलापन,दंभ है विस्तृत<br />क्या करें...<br />ख़त्म ही करें इस शब्द जाल को<br />क्योंकि मै नया क्या बता रहा हूँ<br />मुझसे ज़्यादा तो आप जानते हैं<br />या तो ऐसे कुचक्रों को आप हम ही तो रचते हैं<br />या ऐसे कुचक्रों में फ़ँसते हैं<br /><br /><strong>शो मस्ट गो ऑन</strong>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-14425817937957184372007-09-14T07:29:00.000-07:002008-12-09T14:32:44.917-08:00श्री गणेश का नया भक्ति-पद<div align="center"><a href="http://2.bp.blogspot.com/_MDL6mfNN6gY/RuqcIwkqWuI/AAAAAAAAACA/FM9eqeR4OsY/s1600-h/ganesha+1.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5110068401496808162" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://2.bp.blogspot.com/_MDL6mfNN6gY/RuqcIwkqWuI/AAAAAAAAACA/FM9eqeR4OsY/s320/ganesha+1.jpg" border="0" /></a><span style="color:#ff0000;"><br /></span><div align="center"><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">श्री गजानन विघन हर हमरो</span></div><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">उमा तनय वरदाता दयालु</span><br /><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;"></span><br /><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">एक दंत लंबोदर गजमुख</span><br /><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">रिध्दि-सिध्दि नायक हे गणेश</span><br /><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;"></span><br /><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">भक्तन के रक्षक प्रतिपालक</span><br /><br /><span style="font-size:180%;color:#ff0000;">अवढरदानी शिवशंकर सुत कृपालु</span><br /><br /><br /><br /></div>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-89272951334564671582007-09-13T11:06:00.000-07:002007-09-13T11:19:53.124-07:00फ़िर आ गई हिन्दी की बरसी<strong>हिन्दी के दुश्मन दर-असल उसके अपने ही हैं.नौकरशाहों के रूप में मौजूद ये लोग अंग्रेज़ी को देवी और हिन्दी को दासी मानते हैं. जब तक हिन्दी को आम बोल व्यवहार के लिये इन नौकरशाहों के कुचक्र से मुक्त नहीं किया जात ; हिन्दी पनप ही नहीं सकती. राजभाषा के कारिंदे हिन्दी सप्ताह में अपनी चाँदी कर लेते हैं....लोग समझते हैं हिन्दी मुस्करा रही है ...हक़ीकत में वह आँसू बहाती है . साहित्यकारों के नाम से जो ढोंग हिन्दी के लिये होता है वह महज़ दिखावा नहीं तो और क्या है. हिन्दी को भुना रही है ये सरकारी समितियाँ. इन लोगों से बेहतर काम तो हिन्दी ब्लाँग लिखने वाले कर रहे हैं.धंधेबाज़ तो नहीं ये लोग...मन-प्राण से हिन्दी में सोचते हैं...लिखते हैं . चाहे फ़िल्मी गीतों पर ही लिखते हैं...चुटकुले ही जारी करते हैं ..पर जो भी करते हैं हिन्दी में करते हैं..और ये नहीं..काफ़ी कुछ गंभीर भी रचा जा रहा है ब्लाँग्स पर.दु:ख इस बात से होता है कि सरकारी स्तर पर हिन्दी को सँवारने....उसे प्रसारित करने की कोई ईमानदार कोशिशें नज़र नहीं आती..रही सही कसर निकालने के लिये इन एफ़.एम.स्टेशन्स की भीड़ आ गई है..क्या बोल रहे हैं ...कैसे बोल रहे हैं...ख़ुद नहीं जानते बेचारे...माँ हिन्दी का फ़टा आँचल मुश्किल अपने नंगे तन को ढाँक पा रहा है दोस्तो....आइये हिन्दी की एक और बरसी पर कुछ सच्ची मातमपुर्सी कर लें .</strong><br /><strong></strong><br /><strong></strong><br />(ये विचार प्रेमचंदजी को समर्पित और उन्हीं की विचारधारा से प्रेरित)एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-37792377702805413962007-08-31T08:31:00.000-07:002007-08-31T08:39:52.500-07:00धीरज का पुल ही काम आएगा...दु:ख खो जाएगादु:ख तो आता ही है<br />सुख दूर परदेसी बन जाता है<br />कभी कभी एलबम में रखे<br />पुराने चित्र सा नज़र आता है<br />सुख और दु:ख के बीच<br />बन जाती है खाई<br />कैसे करें पार<br />मन में अशांति अपार<br />समाधान है मन के ही पास<br />सुख और दु:ख को मानो दो किनारे<br />बीच में है गहराई<br />आत्म-विश्वास जगाओ<br />वह गहराई है<br />मन<br />एक खाई सी प्रतीती है जो<br />उससे आओ बाहर<br />धीरज नाम का एक सेतु है<br />नीचे से ऊपर लाओ<br />सुख और दु:ख के बीच उसे<br />बिछाओ....फ़ैलाओ<br />थोड़ा श्रम तो करना ही पड़ेगा<br />बहुत गहरे पड़ा था न<br />धीरज<br />तो उसे ऊपर आने में वक़्त तो लगेगा ही<br />देखो देखो ....वह आ गया ऊपर<br />दुख के इस छोर से चलो<br />देखो सुख मुस्कराता<br />तुम्हारा स्वागत करने को तैयार है<br />बस इतना ही तो करना पड़ा न<br />तो इस धीरज को हमेशा<br />बनाओ एक हथियार<br />दु:ख से पाओ पारएक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-12836419354775682132007-08-22T10:49:00.000-07:002007-08-22T11:06:22.621-07:00अब तो ये आलम है कि ख़ुद से ही मुलाक़ात नहीं होती !पूछो न मन से ऐसा क्यों हो रहा है<br />मिल रहे हैं सब से<br />न जाने कब से<br />लोकाचार है<br />संसार है<br />व्यवहार है<br />त्योहार है<br />कहीं ये अत्याचार तो नहीं मन पर<br />कितना बोझ बढ़ा दिया है मन पर<br />छटाक भर का ह्र्दय कोमल सा<br />उस छोटे से मन पर मन भर का बोझ बढ़ाते हो तुम<br />थक नहीं जाते हो तुम ?<br /><br />मैने तो सुना था दूसरे सताते हैं तुम्हें ?<br />तुम तो खु़द के सताए लगते हो !<br /><br />क्यों भाग रहे हो इतना<br />गुणा-भाग ही करते रहोगे<br />या ये भी जानोगे कि जोड़ने में घट गए कितना<br /><br />मिलो यारब...ख़ुद से मिलो<br />चलो आज से ही शुरू करो<br /><br />सत्य है तुममें<br />सत्व है तुममें<br />जब जागो तब सुबह है<br />अंर्त-आत्मा को जानो<br />निज को पहचानो<br /><br />पढ़ने पढ़ाने में<br />सुनने सुनाने में<br />खु़द को नहीं पढ़ पाए मियाँ<br /><br />ऐसी भी क्या व्यस्तता<br />सब से मिलते हो<br />अब तो ये आलम है कि खु़द से ही मुलाक़ात नहीं होती<br />क्या ये सच बर्दाश्ते क़ाबिल है<br />चिंतन के आईसीयू में मन को ले जाओ<br />चिता जले उसके पहले ख़ुद चेत जाओएक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-14133553906228028492007-08-15T20:11:00.000-07:002007-08-15T20:34:44.684-07:00सब मुसाफ़िर हैं यहाँ कोई नहीं रह जाएगा<strong><span style="font-size:180%;color:#009900;">ज़िन्दगी की सचाइयाँ बयाँ करते चंद अशाअर</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">अज़हर हाशमी ’इनायती’</span>:</strong><br /><strong></strong><br /><strong>रास्तो क्या हुए वह लोग जो आते जाते</strong><br /><strong>मेरे आदाब पे कहते थे के जीते रहिये.</strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">मुनव्वर राना:</span></strong><br /><strong></strong><br /><strong>बिछड़ेंगे तो मर जाएंगे हम दोनो हम दोनो बिछड़कर</strong><br /><strong>इक डोर में हमको यही डर बांधे हुए है.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>ठंडे मौसम में भी सड़ जाता है बासी खाना</strong><br /><strong>बच गया है तो ग़रीबों के हवाले कर दे.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>कोई दु:ख तो कभी कहना नहीं पड़ता उससे</strong><br /><strong>वह ज़रूरत को तलबगार से पहचानता है</strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">अहमद फ़राज़:</span></strong><br /><strong></strong><br /><strong>बदन चुरा के न चल ऐ क़यामते - ग़ज़दाँ</strong><br /><strong>किसी किसी को तो हम आँख उठा के देखते हैं.</strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">’मस्त’कलकत्तवी:</span></strong><br /><strong></strong><br /><strong>वह फूल सर चढ़ा जो चमन से निकल गया</strong><br /><strong>इज़्ज़्त उसे मिली जो वतन से निकल गया</strong><br /><strong></strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">वाली आसी:</span></strong><br /><strong></strong><br /><strong>लोग प्यास अपनी बुझाते हैं चले जाते हैं</strong><br /><strong>और दरिया है कि चुपचाप रवाँ रहता है</strong><br /><strong></strong><br /><strong>देर तक रहे रहे दाता तेरी ऊँची सराय</strong><br /><strong>सब मुसाफ़िर हैं यहाँ कोई नहीं रह जाएगा.</strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">मुज़फ़्फ़र हनफ़ी:</span></strong><br /><strong></strong><br /><strong>अब कह दिया तो साथ निभाएंगे उम्र भर</strong><br /><strong>हालाँकि दोस्ती का ज़माना तो है नहीं</strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">वसीम बरेलवी:</span></strong><br /><strong></strong><br /><strong>लगा के देख ले जो भी हिसाब आता हो</strong><br /><strong>मुझे घटा के तू गिनती में रह नहीं सकता</strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">नामालूम:</span></strong><br /><strong></strong><br /><strong>अपनी फ़ज़ा से अपने ज़मानों से कट गया</strong><br /><strong>पत्थर खु़दा हुआ तो चट्टानो से कट गया</strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">बशीर बद्र:</span></strong><br /><strong></strong><br /><strong>चमक रही है परों में उड़ान की खु़शबू</strong><br /><strong>बुला रही है हमें आसमान की खुशबू</strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">राहत इन्दौरी:</span></strong><br /><strong></strong><br /><strong>अब ग़म आएं,खु़शियाँ आएं,मौत आए या तू आए</strong><br /><strong>मैने तो बस आहट पाई और दरवाज़ा खोल दिया </strong><br /><strong></strong><br /><strong><span style="color:#000099;"><em>मशहूर शायर मुनव्वर राना की किताब</em></span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;"><em>सफ़ैद जंगली कबूतर से साभार.</em></span></strong><br /><strong></strong><br /><strong></strong>एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7515498610706051107.post-7770974716868357462007-08-13T11:51:00.000-07:002007-08-13T12:07:23.845-07:00पन्द्र्ह अगस्त...कुछ सुरीले उत्सव विकल्पएक प्यारी छुट्टी आ गई बहुत दिनो बाद<br />राष्ट्र-प्रेम वेम ....छड यार<br />कुछ सुरीली बात बता<br />कौन जाए झंण्डा तानने<br />ये नेताओं का काम है भई<br /><br /><strong>तो ले सुन क्या क्या कर सकते हैं पन्द्रह अगस्त को...<br /></strong><br />फ़ार्म हाउस चले जाओ...पिकनिक मनाओ<br /><br />बाज़ार चले जाओ ...सेल चल रही है जगह जगह<br />ख़रीदारी में छूट ...लूट सके तो लूट<br /><br />दोस्तों को घर बुला लो<br />पत्ते खेलो...आउटडोर गेम हो नहीं सकता..<br />बारिश की वजह से कीचड़ है काँलोनी में<br /><br />सी.डी.ले आओ...पिक्चर देखो<br /><br />शादी के एलबम की धूल झाड़ लो<br /><br />ज़ोर ज़ोर से म्युज़िक सिस्टम चलाओ<br />नाचो..कूदो...चिल्ल्लाओ.<br /><br />किसी से पैसे वसूलना हो ..<br />धावा बोल दो...पंद्रह अगस्त की छुट्टी रहती है<br />घर ही मिलेगा...धर लो अगले को<br /><br />लाँग ड्राइव पर निकल जाओ<br />हाई-वे पर भुट्टे सिकवाओ<br />नमक मिर्च लगा कर खाओ<br /><br />पुरानी पत्रिकाएँ निकालो<br />किसे याद है किसकी कविता है<br />अपने नाम से ब्लाँग लिख डालो<br /><br />पंद्र्ह अगस्त तो आते ही रहती है<br />किसको पड़ी है यार देशप्रेम की<br />निहायत ही हिप्पोक्रेटिक काम है<br />पैमाने टकाराओ<br />कहो...<br />चीयर्स....<br />लाँग लिव इंडिया...<br />सब करो<br />सब कहो<br />बस...सच मत कहो !एक पंक्तिhttp://www.blogger.com/profile/09512951673791168585noreply@blogger.com0