दफ़्तरों में ऊँचे सैलेरी पैकेज की बात तो हर कोई करता है लेकिन काम कोई नहीं करना चाहता.एक हक़ीक़त ये भी है कि जो काम करता है उसकी पूछ संस्थाएँ नहीं करती.मध्यमवर्गीय आकार के जो कारोबार हैं उनकी बारह बजा रखी है काँर्पोरेट कल्चर वाली कम्पनियों ने. वो ज़माना गया जब एक मुनीमजी पूरी ज़िन्दगी एक पेढ़ी पर निकाल देते थे.अब टोटल टाइम पास की बात हो रही है. जब भी सेल्फ़ एँटप्रोन्योर (स्व-उद्यमी) के रूप में कामकाज शुरू करना चाहें तो दस बार सोचें..क्योंकि आप किसी नये बंदे को तैयार करें और ये उम्मीद रखें कि ये जीवनभर आपका साथ निभाएगा तो आप ग़लत सोच रहे हैं...काम का उतना ही फ़ैलाव करें जितना आप सम्हाल सकें.जहाँ तक दफ़्तरों में काम करने की बात है ..समर्पण का समय गया साहब. आपबीती की बानगी देखिये....
शर्माजी उस स्टेटमेंट का क्या हुआ ?
आपका प्रश्न एक है...उत्तर अनेक हो सकते हैं.
- सर...लाइट गई हुई थी..कंप्यूटर आँन नहीं कर पाया.
- सर...यू.पी.एस. की बैटरी डाउन है.
- सर...पेपर नहीं था.
- सर...भूल गया.
- सर...टाइम ही नहीं मिल पाया
-सर...साँफ़्टवेयर ही काम नहीं कर रहा.
-सर...निकाला था लेकिन एंट्री पूरी नहीं थी.
ज़रा सच सच बताइये ऐसे उत्तरों को सुनकर आप क्या करेंगे..सर अपना सर पीट लीजिये
Saturday, August 11, 2007
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