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Thursday, September 13, 2007

फ़िर आ गई हिन्दी की बरसी

हिन्दी के दुश्मन दर-असल उसके अपने ही हैं.नौकरशाहों के रूप में मौजूद ये लोग अंग्रेज़ी को देवी और हिन्दी को दासी मानते हैं. जब तक हिन्दी को आम बोल व्यवहार के लिये इन नौकरशाहों के कुचक्र से मुक्त नहीं किया जात ; हिन्दी पनप ही नहीं सकती. राजभाषा के कारिंदे हिन्दी सप्ताह में अपनी चाँदी कर लेते हैं....लोग समझते हैं हिन्दी मुस्करा रही है ...हक़ीकत में वह आँसू बहाती है . साहित्यकारों के नाम से जो ढोंग हिन्दी के लिये होता है वह महज़ दिखावा नहीं तो और क्या है. हिन्दी को भुना रही है ये सरकारी समितियाँ. इन लोगों से बेहतर काम तो हिन्दी ब्लाँग लिखने वाले कर रहे हैं.धंधेबाज़ तो नहीं ये लोग...मन-प्राण से हिन्दी में सोचते हैं...लिखते हैं . चाहे फ़िल्मी गीतों पर ही लिखते हैं...चुटकुले ही जारी करते हैं ..पर जो भी करते हैं हिन्दी में करते हैं..और ये नहीं..काफ़ी कुछ गंभीर भी रचा जा रहा है ब्लाँग्स पर.दु:ख इस बात से होता है कि सरकारी स्तर पर हिन्दी को सँवारने....उसे प्रसारित करने की कोई ईमानदार कोशिशें नज़र नहीं आती..रही सही कसर निकालने के लिये इन एफ़.एम.स्टेशन्स की भीड़ आ गई है..क्या बोल रहे हैं ...कैसे बोल रहे हैं...ख़ुद नहीं जानते बेचारे...माँ हिन्दी का फ़टा आँचल मुश्किल अपने नंगे तन को ढाँक पा रहा है दोस्तो....आइये हिन्दी की एक और बरसी पर कुछ सच्ची मातमपुर्सी कर लें .


(ये विचार प्रेमचंदजी को समर्पित और उन्हीं की विचारधारा से प्रेरित)

4 comments:

Udan Tashtari said...

अरे, इतना नाराज न हों. आओ, हम आप मिलकर नये सपने संजोयें, कुछ न कुछ तो हासिल आयेगा!! :)

-हिन्दी दिवस की औपचारिक और सरकारी शुभकामनायें. हम आप इसे रोज मानायेंगे. अब गुस्सा थूक दें. हालात इतने भी बुरे नहीं हैं कि सुधारे न जा सकें. :)

aatmadarshee said...

हिन्दी की बरसी...यह सरकारी अपराध बोध से पैदा हुआ आयोजन होता है.. सरकार परमशक्तिशाली होती है.. व्यक्ति लडता-लडता हार जाता है, पर तन्त्र कभी नही हारता, यह अरुन्धती राय ने न्याय का गणित मे लिखा है..हा, शायद सरकार चाहती है कि हिन्दी मरे, पर जब औरन्गज़ेब सन्गीत को नही मार सका तो भारत सरकार की क्या मज़ाल इस प्रजातन्त्र मे कि वह हिन्दी को मार सके...?

aatmadarshee said...

हिन्दी माह, पखवारा, सप्ताह... यह अपराध बोध से पैदा हुये विचारो का परिणाम है..हम लोक कल्चरल प्रोग्राम की तरह हिन्दी को लेते है...नही-नही, हम नही... सरकार और सिर्फ़ सरकार..वह परमशक्तिशाली है.. अरुन्धती राय ने कहा है न कि न्यायालय मे जाता-जाता इन्सान मर जाता है पर तन्त्र नही मरता... तन्त्र कुछ कर सकता है..

एक पंक्ति said...

उडनतश्तरीजी,आत्मदर्शीजी...साधुवाद.
नाराज़ी की तो कोई बात् ही नहीं है. मुख़्तसर में सिर्फ़ इतना कहना चाहूंगा कि क्या कोई औलाद अपनी वालदैन की इज़्ज़त लुटते देख सकता है.बस मेरी बात को इस नज़रिये से देखिये आपको लगेगा कि मेरा दर्द जायज़ है.