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Wednesday, September 10, 2008

पहले दामन यहाँ रफू कीजै; फिर बहारों की जुस्तजू कीजै

यूँ तो आकाशवाणी के रीजनल प्रसारण केंद्रों से सिवा समाचार के कुछ और अच्छे की उम्मीद करना बेमानी ही होता है लेकिन कभी कभी कोई ऐसी चीज़ यहाँ मिल जाती है कि फ़िर रेडियो के नज़दीक बने रहने को जी करने लगता है. अनायास आकाशवाणी भोपाल से प्रसारित होने वाली उर्दू मैगज़ीन में ये ग़ज़ल सुनने को मिली.
एकदम नया नाम लेकिन लाजवाब कलाम और सुरीली तरन्नुम. शायर का नाम था जनाब मसूद रज़ा भोपाली.नोट कर ली थी सो आप भी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ;

पहले दामन यहाँ रफू कीजै
फिर बहारों की जुस्तजू कीजै

यही ऐलान कू ब कू कीजै
शीशा पत्थर के रूबरू कीजै

कभी हमको दीजै इज़्में-सुकूँ
कभी हमसे भी गुफ़्तगू कीजै

रोकिये अपनी मुस्कुराहट को
मेरा चाके जिगर रफू कीजै

कौन है अपने अब तसव्वुर में
आईना किसके रूबरू कीजै

हम सितम को सितम नहीं कहते
आप तौहीने आरज़ू कीजै.

5 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

कौन है अपने अब तसव्वुर में
आईना किसके रूबरू कीजै

बहुत ख़ूब...

यूनुस said...

भाई रेडियो पर अब भी बहुत कुछ है जो सुनन लायक़ बचा हुआ है । रेडियोवाले हैं इसलिए ऐसा नहीं कह रहे हैं ।

Udan Tashtari said...

पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.

वीनस केसरी said...

हम सितम को सितम नहीं कहते
आप तौहीने आरज़ू कीजै.

ऐसी भी क्या नाराजगी ?

अच्छे भाव

वीनस केसरी

डा. अमर कुमार said...

.

बहुत अच्छा लग रहा है.. यह पढ़ना
अच्छा ही लगेगा, यहाँ दुबारा लौट कर आना..