कुचक्र से सिली दुनिया मे
फ़िजूल के कयास मत लगाओ
ये मत सोचो की कोई प्रेम-कविता
लिख रहा है / या लिख रही है
तो वह किसी तरह का आकर्षण
पैदा करना चाहता ह / चाहती है
मत सोचना कि किसी मन की
ऐंद्रिक अनुभूति को भुनाना चाह रहा है
मत सोचना कि किसी तरह की आत्म रति है ये
प्रेम की कविता
ओस की बूँद सी पवित्र भी हो सकती है
बच्चे की हँसी सी धर्म-निरपेक्ष भी हो सकती है
माँ के वात्सल्य सी निर्दोष भी हो सकती है
पत्नी के नि:श्छल प्रेम सी हो सकती है
प्रेम की कविता हैलोजन की रोशनी नहीं
एक मोमबत्ती है अपने को गला कर उजाला करने में निरत
हवन का धुँआ सी होती है प्रेम कविता
परिवेश को आनंदमय बनाती सी
लोभान और अगरबत्ती सी होती है
प्रेम कविता
मध्दिम मध्दिम सुरभित करती माहौल को
ऐसा नहीं की रचने वाला ही है प्रेम कविता का पात्र
आप भी हो सकते हैं...वह भी हो सकती है.....
इत्र किसी और को लगाओ तो अपनी उंगलियाँ भी महक उठतीं हैं
प्रेम कविता अपने मन के एकांत को साझा करने की जुम्बिश भर है
आपको अपनी सी लगने लगे ...या आपकी लिये लिखी गई लगने लगे तो
इसमें शब्द और क़लम का पराक्रम ही तो है न ?
Sunday, October 7, 2007
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